“यदि आप वही करते हैं, जो आप हमेशा से करते आये हैं तो आपको वही मिलेगा, जो हमेशा से मिलता आया है!!” — टोनी रॉबिंस

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सुभाष चंद्र बोस-3

Subhash chandra bose
समय था 1916 का और प्रेसिडेंसी कॉलेज कोलकाता में इसी समय एक के बाद एक दो ऐसी घटनाएं हुई जिसने सुभाष चंद्र बोस की पूरी जीवन वृति को ही बदल डाला पहली थी प्रोफेसर ई एफ. ओटेन ने अपनी क्लास के सामने बरामदे में कुछ लड़कों को पीट दिया और तब विद्यार्थियों ने इसका विरोध किया, हड़ताल की फिर उस प्रोफेसर ने आर्थिक दंड ठोका यह देखकर सुभाष का मन अंग्रेजों के  प्रति विरोधवृत्ति का हो गया। इसी के 1 महीने बाद उसी प्रोफेसर ने फिर एक फर्स्ट ईयर के लड़के को पीट दिया तब सुभाष व अन्य लड़कों ने मिलकर उस प्रोफेसर की कुटाई कर दी और जैसे को तैसा वाला जवाब दिया।और ऐसा पहली बार हुआ, “हाथ था हिंदुस्तानी और गाल था इस बार अंग्रेजों का”।
इस घटना के बाद सुभाष को कॉलेज से निकाल दिया गया और  और उन्हें 2 वर्ष तक किसी भी कॉलेज में एडमिशन देने पर पाबंदी लगा दी गई; लेकिन सुभाष इससे थोड़े भी प्रभावित नहीं हुए और लगातार अपने समाज सेवा और अध्यात्म के कार्य में लगे हुए थेइन घटनाओं को देखकर सुभाष लोगों से कहते थे मुट्ठी भर अंग्रेजों के लिए जनता के कम से कम एक भाग का सहयोग लिए बिना न तो व्यापार चलना संभव है और न शासन, तो ऐसे में इतने लंबे समय तक यह हमारे ऊपर राज क्यों कर रहे हैं?
साथ ही हिंदू धर्म में वैज्ञानिकता को देखने वाले सुभाष का मानना था कि इस्लाम ने आधुनिक विज्ञान और सभ्यता के प्रति अनुकूल रवैया नहीं अपनाया शायद यही कारण है कि आज भी इस्लाम में इतनी ज्यादा रूढ़िवादिता है।लेकिन सुभाष हमेशा से ही हिंदू-मुस्लिम एकता के कायल थे। उनका मानना था कि हिंदू,मुस्लिम, सिख, इसाई से जब तक हम ऊपर नहीं उठेंगे और खुद को भारतीय बोलने पर गर्व नहीं करेंगे, तब तक देश चौमुखी विकास नहीं कर सकता 
लेकिन घर वाले उनके भविष्य को लेकर चिंतित थे और एक दिन पिता ने बड़े भाई शरदचंद्र की उपस्थिति में सुभाष को बुलाया और पूछा “भविष्य के लिए तुमने क्या सोचा है? हम तो चाहते हैं तुम ब्रिटेन जाकर आई.सी.एस की तैयारी करो। ” तब सुभाष ने इसके बारे में सोचने के लिए 24 घंटे का समय मांगा और आखिर में वह ब्रिटेन जाने के लिए तैयार हो गए 
        जब वे इंग्लैंड के कैंब्रिज में एडमिशन लेने के लिए गए। तब कैंब्रिज में एडमिशन सत्र लगभग खत्म होने वाला था और किसी भी तरफ से उन्हें मदद मिलने के कोई आसार नहीं दिख रहे थे। तब उन्होंने स्वयं ऐडमिशन काउंसिल के पास जाकर किस्मत आजमाने की सोची। 
 किड्स विलियम हॉल के सर उनसे काफी प्रभावित हुए और उन्हें ऐडमिशन दे दिया लेकिन उन दिनों में भी एक कॉलेज के अलावा इंडियन यूनियन सोसायटी के कार्यक्रमों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते थे। और पढ़ाई से ज्यादा वह भारतीय प्रवक्ताओं को सुनते या भारत के संबंध में कोई भी कार्यक्रम होता तो वे उसमें अवश्य जाते। 


जब 1920 मे उन्होंने सिविल सर्विस का एग्जाम दिया तो उन्होंने अपनी घर को लिखे एक पत्र में कहा कि कोई उम्मीद ना रखी जाए कि वह चुने जाएंगे लेकिन जब परिणाम आया तो उन्हें चौथा स्थान प्राप्त हुआलेकिन 1920-21 के बीच उन्होंने अपने भाई को पत्र लिखकर कहा- “इस नौकरशाही नौकरी की चमक दमक के एवज में बिक गए तो वे भारत की आजादी के नजदीक आने की वजह बहुत दूर हो जाएंगे”


अतः उनके लिए आधारभूत प्रश्न था कि क्या स्वाधीनता की राह पर चलें जिसका मतलब है सेवा,संघर्ष,त्याग या फिर भारत को गुलाम रखने वाली  सत्ता के समक्ष समर्पण कर दें।लेकिन उन्होंने संघर्ष के ही रास्ते को चुना।उन्हें पता था उनके इस निर्णय का घर वाले विरोध करेंगे तो उन्होंने अपने भाई शरद को लिखा कि विदेश में उनकी पढ़ाई पर जो पैसा खर्च हुआ है उसे भारत माता के चरणों में अर्पित उपहार मान लिया जाए और उसके कभी भी वापस मिलने की इच्छा न रखी जाए