“यदि आप वही करते हैं, जो आप हमेशा से करते आये हैं तो आपको वही मिलेगा, जो हमेशा से मिलता आया है!!” — टोनी रॉबिंस

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"कबीर" संत, भक्त, फक्कड़,अलबेला या फिर कुछ और........


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फोटो - संत कबीर दास by google.com 

कबीर का नाम सुनते ही हमारे दिमाग में एक चित्र कौंधता है। और जो चित्र कौंधता है उसे कोई एक नाम देने के लिए  मन ही मन कई सारे प्रश्नों से जूझना पड़ता है फक्कड़, अलवेला,-
समाज सुधारक थे?
कबीर संत थे?
भक्त थे?
दार्शनिक थे?

  इन सारे प्रश्नों को अगर समूल उत्तर में पिरोया जाए तो "कबीर स्वभाव से संत, प्रकृति से उपदेशक और ठोंक-पीट कर कवि हो गए हैं।" माना जा सकता है। इस उत्तर के बाद एक प्रश्न और महत्वपूर्ण हो जाता है की कबीर का मूल व्यक्तित्व कवि का है, समाज सुधारक का है या फिर भक्त का है....?


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 आइये आपको हम अपनी समझ और अध्ययन के आधार पर कबीरत्व की यात्रा करबाने की कोशिश करते है...

   जहाँ तक कबीर के समाज सुधारक होने का प्रश्न है, यह निर्विवाद सत्य है की वो बुद्ध, गाँधी, अम्बेडकर, इत्यादि क्रांतिकारी समाज सुधारकों की परम्परा में शामिल होते है। एक महान समाज सुधारक की मूल पहचान यह है की वो अपने समय की विसंगतियों की पहचान करे, और एक मौलिक और समयानुकूल जीवन दृष्टि प्रस्तावित करे और इस प्रकार की जीवन दृष्टि को स्थापित करने के लिए सभी प्रकार के भय और लालच से मुक्त होकर दृढ़तापूर्वक संघर्ष करे। इस दृष्टि से कबीर के साहित्य में समाज सुधार और सामाजिक चिंताओं को लेकर  तीव्र रचना मुखर हुई है।  कबीर के समकालीन सामाजिक विद्रुपताओं को देंखें तो उस समय सामंतवादी युग था; और जहाँ पर वर्णव्यवस्था और साम्प्रदायिकता ने मानव समाज को खंडित किया हुआ था। ऐसे समय में कबीर ने मानव मात्र की एकता का सवाल उठाया और स्पष्ट घोषणा की कि "साईं के सब जीव हैं, कीरी कूंजर दोय।" कबीर का समर्पण और आत्मविश्वास इतना प्रबल था की उन्होंने घोषणा कर दी -
         
                                          "हम घर जारा अपना, और लिया मुराड़ा हाँथ।
                                            अब घर जारु तासु का, जो चले हमारे साथ।।"

सद्गुरु कबीर दास जी 

  कबीरदास जी कहते है मैंनें अपना सर्वस्व समाज को अर्पण कर दिया और अपने घर में आग लगा कर हाँथ में मसाल लेकर समाज के लिए निकल पड़े है।
   घर फूंककर जो समाज सेवा का जो तेवर कबीर में दिखता है वो अन्यत्र बिरले ही पाए जाते हैं।

  कबीर जितने महान समाज सुधरक थे उतने ही महान कवि भी थे। यह ठीक है की उन्होंने सचेत होकर या प्रतिज्ञापूर्वक अपनी कविताएं नहीं लिखी और कहा की "जिन्ह तुम जान्यो गीति हैं, वह निज ब्रह्म विचार।" उन्होंने यहाँ तक माना की "मसि कागद छबो नहीं, कलम गहि नहीं हाँथ " अर्थात उन्होंने कभी स्कूल में जाकर अकादमिक पढ़ाई नहीं की और कभी कलम को हाँथ भी नहीं लगाया।

 कबीर के व्यक्तित्व का एक पक्ष उनका संत होना भी है और संतों की परंपरा में भी वो शामिल हैं। किसी महान संत में चार गुण अपेक्षित होते हैं- आध्यत्मिक मनोवृत्ति, सांसारिक सुखों के प्रति विरक्ति का भाव, निःस्वार्थता और निर्भयता। कबीर में ये सारे गुण विद्यमान पाए जाते हैं। उनमें नीडरता के साथ जो घरफूँक मस्ती पाई जाती है वो बड़े-बड़े संतो में भी दुर्लभ है।

  दरअसल कबीर के व्यक्तित्व की मूल समझ तभी पूर्ण होती है जब  हम उनके भक्त व्यक्तित्व को समझते हैं। कबीर के भक्ति संबंधित पदों को पढ़ते हुए अक्सर यह महसूस होता है की भक्ति उनके जीवन का चरम भाव है-
                           "मन मस्त हुआ तब क्या बोलै
                            मेरा साहब है घर माहीं, बाहर नैना क्यों खोलै।।"

उन्होंने इस बात की घोषणा भी कर दी है-
                            "पकड़ी टेक कबीर भगति की
                             काज़ी रहे झख मारी।।"
 
   उपरोक्त यात्रा से स्पष्ट है कि कबीर का व्यक्तित्व न केवल बहुआयामी है बल्कि उनके व्यक्तित्व के सभी आयाम अपने-अपने स्तर के पूर्णता को छुते हैं। इसके बाद भी यह ध्यान रखना जरूरी है की कबीर के मूल में भक्तिभाव ज्यादा प्रबल रूप से मुखरित हुआ है।



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