“यदि आप वही करते हैं, जो आप हमेशा से करते आये हैं तो आपको वही मिलेगा, जो हमेशा से मिलता आया है!!” — टोनी रॉबिंस

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चुनावी वादों का कारवां जो तब से लेकर अब तक चलता है

ये वादों का कारवां कब तक यूं ही चलता रहेगा ?


  1951-52  के आम चुनावों में पं. नेहरू के सामने कोई सशक्त चुनौती नहीं थी । लेकिन वो चुनाव उन्होंने दक्षिणपंथी और मार्क्सवादियों से देश को बचाने के नारे पर लड़ा ।  

हांलाकि नेहरू काफी हद तक सही भी थे, उस समय देश बंटवारे का दुःख झेल रहा था तो साथ ही बंटवारे के बाद आये शरणार्थीयों  के कारण पहले से रह रहे स्थानीय निवासियों को थोड़ी दिक्क़तें हो रही थी । साथ ही शरणार्थीयों के साथ कुछ जगहों पर लोगों के मनमुटाव शुरू हो गए । और इन सब को हवा देकर कुछ लोग नेहरू और उनकी साख को डिगाना चाहते थे ।

    लेकिन जो वादों का सिलसिला शुरू हुआ 1971 में वो अब तक ज्यों का त्यों या यों कहे और भी बेशर्मी पूर्वक चलता ही जा रहा है । हांलाकि 1970 तक भी पार्टियां वादे तो करती थी लेकिन उनके अंदर एक शालीनता और जनता के लिए उत्तरदायित्व की भावना थी,  जो उन्हें ज्यादा झूठे वादे करने और जनता को मूर्ख बनाने से रोकती थी । लेकिन उसका एक कारण और भी था कि उस समय तक कांग्रेस की विरासत और उसकी साख को चुनौती देने वाली पॉलिटिकल पार्टी देश में राष्ट्रीय स्तर पर कोई नहीं थी ।

     लेकिन 1970 के आस-पास से देश में परस्थितियां बदलने लगी थीं, जंहा जनतादल अपनी पकड़ मजबूत कर रहा था, वहीँ अन्य वामपंथी पार्टियां भी देश में पहचान पा रही थीं | साथ ही अब कांग्रेस के पास पं.नेहरू की तरह अब कोई चमत्कारी नेता नहीं था । अब विपक्ष में जय प्रकाश नारायण ,अटल बिहारी  जैसे कद्द्वार नेता कांग्रेस और इंंदिरा गांधी को चुनौती दे रहे थे । अब चुनाव और उसके तरीके में बदलाव आने वाला था अब पार्टियां सब कुछ ताक पर रखकर जनता को मूर्ख बनाने का खेल शुरू करने वाली थीं । अर्थात वादों का न थमने वाला कारवां ।

    1971 के चुनाव में अपनी बढ़त बनाने के लिए इंदिरा जी ने देश से वादा किया "गरीबी हटाओ "। गरीबी तो नहीं हटी लेकिन इंदिरा जी काफी लोकप्रिय हो गयीं । और कांग्रेस ने 518 में से 352 सीटें अपने नामकर जनता को भुला दिया । और जब बारी कुछ करने की आयी तो इंदिरा जी ने देश की गरीब जनता को दिया "आपतकाल और जबरन नशबंदी" | जिसका प्रभाव ये रहा कि पहली बार किसी लोकतान्त्रिक देश में लोगों के मौलिक अधिकारों को कुचला गया तो वहीं जबरन नशबंदी में कई लोगों की मौत हो गई । 

       ये वादों का कारवां है साहब ! यूँ ही चलता रहेगा ।

  फिर आडवाणी-अटल जी का दौर आया जिसमे उन्होंने राम मंदिर का मुद्दा उठाया और देश की जनता के साथ राम से भी वादा किया 
        " राम लला हम आएंगे , मंदिर वही बनाएंगे ।"

      मंदिर तो बना नहीं लेकिन अपने इस हथियार को भाजपा ने आजतक नहीं छोड़ा और 1999 में भाजपा ने इस झूठे वादे के दम पर अपनी सरकार बना ली । अब जनता को मूर्ख बनाने की जिम्मेदारी थी कांग्रेस की, कांग्रेस ने भी एक बड़ा सपना दिखाया उस जनता को जहां 20 से ज्यादा लोग हर रात भूखे सोते हैं, उस जनता से कांग्रस ने वादा किया "कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ"। फिर क्या था ? 

                आम आदमी पके आम से सड़ा आम बन गया ,लेकिन कांग्रेस विपक्ष से सत्ता पर आ गयी । और सत्ता में आने के साथ ही उसने सभी वादों को सिर्फ पूरा हुआ घोषित करके अपने बेशर्मी से पल्ला झाड़ लिया । और जनता फिर मूर्ख बन सब देखती रही और कांग्रेस सत्ता के नशे में डूबी, फिर से जनता को 2009 में मूर्ख बनाने का रास्ता खोजने लगी ।
ये वादों का कारवां है यूं ही चलता रहेगा ...... . 

(शेष भाग 2 में )