“यदि आप वही करते हैं, जो आप हमेशा से करते आये हैं तो आपको वही मिलेगा, जो हमेशा से मिलता आया है!!” — टोनी रॉबिंस

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पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह देश की नई अर्थव्यवस्था के संस्थापक और रिवाइवर हैं


पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह (सोर्स :डी एन ए इंडिया) 

दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक प्रणाली माना जाने वाला हमारा देश अर्थव्यवस्था की कमजोर नीतियों के चलते बर्बाद होने वाला था। राजीव गांधी की हत्या, राजनीतिक उलट-पलट और व्यापारिक अस्थिरता इन सब से भारत जूझ रहा था. भारत में विदेशी पूंजीपतियों की विश्वसनीयता खत्म हो रही थी, आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक से सहायता बंद हो चुकी थी, ये भारत के सोवियत संघ पर आधारित समाजवादी अर्थव्यवस्था के लिए काला दौर था। भारत के पास विदेशी मुद्रा कोष केवल 2 से 3 हफ्तों के लिए ही बचा था देश इस आर्थिक मंदी से डूबने वाला था। 1991 के समय के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के बाद पीवी नरसिम्हाराव को तब का प्रधानमंत्री घोषित किया गया। नरसिम्हाराव ने उनके मंत्रिमंडल में पाकिस्तान के गेह पंजाब में जन्मे हुए एक शिक्षित अर्थशात्री डॉ मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री का स्वतंत्र प्रभार सौंपा। जो बाद में देश के 13 वें प्रधानमंत्री भी बने। ऐसे अर्थशास्त्री जिन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था के ढांचे को बदल दिया और देश की अर्थव्यवस्था को नया आयाम दिया।


अविभाजित पाकिस्तान में मनमोहन सिंह का जन्म 26 सितम्बर 1932 को हुआ था और 1947 में भारत-पाकिस्तान विभाजन होने पर इनके माता-पिता भारत अधिकृत पंजाब अमृतसर आ गए। पूर्व से ही शिक्षा में अव्वल रहे मनमोहन सिंह ने अर्थशास्त्र में स्नातक और स्नातकोत्तर हिन्दू कॉलेज और पंजाब यूनिवर्सिटी से पूरा करने बाद यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैम्ब्रिज से अपनी आगे की पढाई जारी रखी। उसके बाद डी फिल की पढाई के लिए यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफ़ोर्ड गए और 1966-1969 तक के लिए इंग्लैण्ड में इकोनॉमिस्ट रहे। UNCTAD के सदस्य बनते ही उस समय के तत्कालीन उप वित्त मंत्री ललित नारायण तिवारी की नज़र मनमोहन सिंह पर पड़ी और उन्होंने मनमोहन सिंह को विदेश व्यापार निति के सलाहकार के रूप में नियुक्त किया। इस तरह से डॉ मनमोहन सिंह का ब्यूरोक्रेटिक कॅरियर शुरू हुआ।


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डॉ मनमोहन सिंह और साथ में पी वी नरसिम्हाराव (सोर्स : द हिन्दू)

इसके बाद मनमोहन सिंह लगातार अग्रसर रहे, 1972 में वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में, 1976 में वित्त मंत्रालय के सचिव के रूप में और 1980-82 में प्लानिंग कमीशन के सदस्य और 1982 में प्रणव मुखर्जी के वित्तमंत्री होते हुए रिज़र्व बैंक के गवर्नर चुने गए। 1985 तक रिज़र्व बैंक के गवर्नर रहने के बाद इन्हे 1987 तक योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया गया और योजना आयोग का पदभार सँभालने के बाद 1987 से 1990 नवम्बर तक वो जिनेवा,स्विट्जरलैंड में मुख्यालय वाले एक स्वतंत्र आर्थिक नीति थिंक टैंक दक्षिण आयोग के महासचिव बन गये और वीपी सिंह के 1 साल के कार्यकाल आर्थिक मामलों पर भारत के प्रधान मंत्री के सलाहकार के रूप में पद पर रहे। मार्च 1991 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष बन गये।

1991 तक भारतीय अर्थव्यवस्था नेहरूवादी-समाजवादी एजेंडे जो की सोवियत संघ आधारित थी; के अनुसार काम कर रही थी, जो कि सकल घरेलू उत्पाद और आंतरिक जनता के 23 प्रतिशत के बाहरी ऋण के साथ थी। जीडीपी का 55 प्रतिशत कर्ज देश के लिए बहुत अच्छा नहीं था। लाइसेंस 'राज' के अस्तित्व के साथ-साथ एक अर्ध-कल्याणकारी राज्य के रूप में कार्य करने के कारण - 1947 और 1990 के बीच भारत में व्यवसायों को स्थापित करने और चलाने के लिए लाइसेंस, विनियमों और साथ लाल टेप की विस्तृत प्रणाली की आवश्यकता थी - भारतीय रोजगार दर एक नकारात्मकता के लिए नीचे चला गया था। न्यूनतम आर्थिक विकास हुआ था, और विनिर्माण क्षेत्र खराब स्थिति में था। राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद केवल 8 प्रतिशत ही था  थोक मूल्य मुद्रास्फीति में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी और खुदरा मुद्रास्फीति 17 प्रतिशत तक बढ़ गई थी। विदेशी मुद्रा भंडार 2500 करोड़ रुपये से कम है, जो कि एक साल पहले 1990 में प्रचलित होने की तुलना में लगभग 75 प्रतिशत कम था। इसे कम करने के लिए, अर्थव्यवस्था को अपंग बना दिया गया था, और एक नए सेट की सख्त जरूरत थी मानदंड जो इसे बदलेंगे।

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इंडियन एक्सप्रेस अखबार 1991 के समय में  डूबती हुई भारतीय अर्थव्यवस्था

तब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव के कैबिनेट में वित्त मंत्रालय सम्भालने वाले डॉ मनमोहन सिंह को भारत की चरमराई हुई अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए चुना गया हालाँकि इस कार्य के लिये ऐसे व्यक्ति की दृस्टि और लचीलेपन की ज़रूरत थी जो अर्थव्यवस्था के पूरे चेहरे को बदलने के लिए पूर्णतः प्रतिबद्ध हो।  मनमोहन सिंह इस काम में निपुण व्यक्ति थे, सिंह के पास व्यापार, अर्थशास्त्र और वैश्वीकरण में एक व्यापक  पृष्ठभूमि थी, ऑक्सफोर्ड से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट, संयुक्त राष्ट्र में लगातार तीन वर्षों के लिए और विदेश व्यापार मंत्रालय में सलाहकार के रूप में, उन्होंने रिजर्व बैंक गवर्नर (1982-1985) के साथ-साथ मुख्य आर्थिक सलाहकार (1972-1976) और योजना आयोग प्रमुख (1985-1987) का पद भी संभाला हुआ था, ये सारी उपलब्धियां मनमोहन सिंह को इस पद के लिए सबसे आगे रखती थी।

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फाइनेंस मिनिस्टर प्रणव मुखर्जी पी एम राओ और साथ में उच्चायुक्त डॉ मनमोहन सिंह  (सोर्स :द हिन्दू)


नरसिम्हाराव सरकार बनते ही मनमोहन सिंह को पहला बजट निर्धारित करने का काम सौंपा गया, जिसे नई राव सरकार केंद्रीय निकाय में अपने आरोहण से एक महीने से भी कम समय में जारी करने वाली थी।  की देश की स्थिति का सकल मूल्यांकन करने के बाद,मनमोहन सिंह ने भारत को 'आर्थिक उदारीकरण और लाइसेंसी राज' का रणनीतिक अंत करने का फैसला किया। 

भारतीय अर्थव्यवस्था को पुनः पटरी पर लाने के लिए डॉ मनमोहन सिंह ने आरबीआई के साथ दो-चरणीय अवमूल्यन कार्यक्रम के साथ शुरुआत की, जिसे पहले प्रमुख मुद्राओं के खिलाफ नौ प्रतिशत द्वारा अवमूल्यन किया गया था और फिर दो दिन बाद ग्यारह प्रतिशत तक लाया गया। इसने स्वाभाविक रूप से अंतर्राष्ट्रीय बाजार के साथ व्यापार और व्यवहार को बढ़ावा दिया। इसके बाद सोने की लगातार मांग और मूल्य को ध्यान में रखते हुए, संसाधनों को प्राप्त करने के लिए उन्हें सोना एक रणनीतिक मार्ग प्रतीत हुआ और उन्होंने इसके बाद भारतीय रिज़र्व बैंक को चार ट्रेंच में बैंक ऑफ इंग्लैंड के साथ भारत की सोने की होल्डिंग को गिरवी रखकर इससे प्रदान होने वाली आवश्यक वित्तीय सहायता प्राप्त की।

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इंडियन इकॉनॉमी इन 1991 

मनमोहन सिंह के सबसे सफल और सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक कार्य विदेशी निवेश को बढ़ावा देना था, उन्होंने कहा कि भारतीय पूँजी में विदेशी निवेश का स्वागत करना समझदारी होगी, क्योंकि देश में उद्यमशीलता की भावना को प्रोत्साहित करके औद्योगीकरण को बहुत अधिक बढ़ावा देगा और आवश्यक पूँजी, प्रौद्योगिकी और लक्ष्य बाजारों तक सीधी पहुंच भी प्रदान करेगा और इसके बाद से भारत में विदेशी निवेश का दायरा बढ़ने लगा और फॉरिन ट्रेड पॉलिसी से 1991 के बाद भारत की जीडीपी में करीब 15 प्रतिशत का इजाफा हो गया।

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आरबीआई की तस्वीर 


1991 हमारे देश की अर्थव्यवस्था का ऐसा कालखंड था जब हमारे पास अपने ज़रूरत के लिए गैस और तेल लेने के लिए भी पैसे नहीं बचे थे आयात पर प्रतिबन्ध लगने वाला था यह अंत करने के लिए,अनावश्यक नियंत्रणों को दूर करने, लाइसेंसिंग प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने के लिए गैर-ज़रूरी आयातों को निर्यात से जोड़ने का फैसला किया। इन्होने लोकप्रिय 'निर्यात सब्सिडी' को समाप्त करने और लाइसेंस प्रणाली के विस्तार का भी आह्वान किया।

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भारत की पुरानी समाजवादी अर्थव्यवस्था (सोर्स:मिंट)

मनमोहन सिंह ने भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) को पूर्ण कानूनी शक्तियां हस्तांतरित करने का आह्वान किया, ताकि देश में स्टॉक एक्सचेंजों के कामकाज को नियमित किया जा सके। नतीजतन, सेबी एकमात्र बाजार नियामक बन गया। उन्होंने सॉफ्टवेयर के निर्यात के लिए कर रियायत का विस्तार करने का भी प्रस्ताव दिया। इस रियायत के परिणामस्वरूप, भारतीय सॉफ्टवेयर कंपनियां अधिक लागत प्रभावी हो गईं और उन्होंने 220 मिलियन डॉलर के आपातकालीन ऋण के लिए आवेदन करके अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से राहत पाने के लिए अर्थव्यवस्था का आह्वान किया, जो बाद में ऋण चूक को रोकने के लिए आवश्यक रक्षक साबित हुआ।


आर्थिक सुधारों के मुख्य पटों पर प्रकाश डालते हुए डॉ मनमोहन सिंह ने भारतीय अर्थव्यवस्था के पहिये को पटरी पर लाकर, उसे रफ़्तार दी जो कि धीमी लेकिन स्थिर आर्थिक विकास को बनाए रखने में मदद करते हैं। 
इस प्रकार राव और सिंह ने भारत की समाजवादी अर्थव्यव्स्था को पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में बदलने के लिए नई  नीतियों को लागू किया, इस नई प्रक्रिया में, लाइसेंस राज को खत्म करने की प्रक्रिया, जिसने निजी व्यवसायों की समृद्धि को बाधित किया। उन्होंने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के रास्ते में खड़ी कई बाधाओं को दूर किया और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के निजीकरण की प्रक्रिया शुरू की। 

1991 के बाद मनमोहन सिंह अब राजनीति में ही आ गए और यूपीए के 2004 से 2014 के कार्यकाल में प्रधानमंत्री  के रूप में चुने गए। 1991 के बाद भारत में वो दौर कभी नहीं आया, देश की अर्थव्यवस्था को पूरी दुनिया के सामने उन्होंने एक मजबूती के साथ पेश किया। भारत को विश्व में एक नै शक्ति के रूप में उभारने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई। अर्थशास्त्री डॉ मनमोहन सिंह को कई ऑनरेरी डिग्री भी मिलीं। इस प्रकार से डॉ मनमोहन सिंह को देश की नई अर्थव्यवस्था का संस्थापक और उसे पुनर्जीवित करने वाला रिवाइवर भी कहना गलत नहीं होगा।   


यह लेख दिल्ली के मीडिया दरबार नामक हिंदी साप्ताहिक पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है। इस आर्टिकल के बारे में हमें कमेंट कर बातएं कि कैसा लगा और ऐसे ही आर्टिकल्स पढ़ते रहने के लिए हमें फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर पर लिखे और फॉलो करें।



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