“यदि आप वही करते हैं, जो आप हमेशा से करते आये हैं तो आपको वही मिलेगा, जो हमेशा से मिलता आया है!!” — टोनी रॉबिंस

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जनता अब डिबेट शो ज्ञान और खबरों से अपडेट होने के लिए ना देखकर केवल लुफ्त उठाने और अपना मन ताज़ा करने के लिए देखने लगी है।

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केटीएनवी लास वेगास से ली गयी फोटो 
एक समय था जब पत्रकारिता मुहिम हुआ करती थी, उस समय में जब ब्रिटिश शासन ने देश में अपनी पैठ जमाई हुई थी तब लोगों में आज़ादी की भावना और जनसंचार के लिए अखबारों और पत्रिकाओं का प्रकाशन किया जाता था और निष्पक्ष रूप से प्रसारित किया जाता था। किसी तरह से भारत के आज़ाद होने के बाद देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था का शिलान्यास किया गया था, तब लोकतंत्र को मजबूत रूप देने और सुचारू ढंग से बनाए रखने के लिए इसे 4 मजबूत स्तंभों में बनाया गया था, जिसमें पहले स्थान पर न्यायपालिका, दूसरा स्तंभ कार्यपालिका, तीसरा स्तंभ विधायिका और आखिरी साथ ही सबसे आवश्यक स्तंभ मीडिया को रखा गया। इसी चौथे स्तंभ मीडिया का कार्य बाकी के 3 स्तंभों के कार्य पर नजर रखने और लोगों में जनसंचार प्रसारित करने, लोकव्यावस्था का निर्माण करने तथा समाज को को एक सूत्र में पिरोने का था। परन्तु जिस प्रकार से समय के साथ सब कुछ बदलता है वैसे ही इस कथित रूप से प्रगतिशील समाज में मीडिया ने अपना कुछ अलग ही स्वरूप तैयार कर लिया।




देश के आज़ाद होने के बाद बाजारीकरण हुआ फिर उसके बाद बाज़ार से लेकर राजनीति, राजनीति से लेकर सम्पूर्ण लोकतंत्र के लिए समाज की आवाजों को उठाने वाली मीडिया स्वयं ही बाजारीकृत हो गई। हां ये बात सच है कि बाजार बढ़ने से मीडिया को भी अपनी क्षमता बढ़ाने का अवसर मिला है। लेकिन इससे बाज़ार का भी बोझ मीडिया पर पड़ा है, अब मीडिया स्वतंत्र नहीं दिखती है। 

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कैपिटल एम से ली गयी फोटो 
125 करोड़ के आबादी वाले देश में प्रत्येक स्थान पर लाखों जन - समस्याएं हैं लेकिन मीडिया ब्रेकिंग न्यूज, सनसनीखेज और टीआरपी पाने के चक्कर में अपना मुख्य कार्य भूल चुकी है। इससे पब्लिक भी आज पूर्वानुमान लगाने में समर्थ होने लगी है कि ब्रेकिंग न्यूज अब केवल ब्रेकिंग न्यूज ही है। कहने का तात्पर्य यह है कि आम जनता की नजर में मीडिया ने अपना विश्वास खो दिया है। आज के समय में मीडिया में सामाजिक मुद्दों और देश की दूसरी परेशानियां बाकी के तीन स्तंभों तक पहुंचाने में असमर्थ मीडिया आज केवल एंटरटेनमेंट की श्रेणी में आने लगी है। समाज तक पहुंच बनाए रखने की असमर्थता के कारण उनसे से जुड़ी खबरों का अभाव हो जाता है, लेकिन मीडिया टीवी चैनलों को क्या है उन्हें तो 24*7 चलना है। उन्हीं खबरों के अभाव में फिर बॉलीवुड की और अंधविश्वास से जुड़ी वो खबरे दिखाई जाती हैं जिनका आम जनता और किसी से सरोकार ही नहीं होता है। ये अत्यंत दुख की बात है कि मीडिया को इतना क्यों बनावटी होना पड़ रहा है और "करीना कपूर ने आज अपने बेटे तैमूर का डायपर बदला" इस प्रकार की खबरों से जनता को वाक़िफ कराया जाता है, आखिर इस खबर से किसका क्या संबंध किसे क्या ज्ञान मिल गया। आपको बता दूं कि यह बात केवल उदाहरण मात्र थी। 





वहीं दूसरी ओर यदि कोई भी मुद्दा हो गया यदि मान लीजिए उदाहरण के लिए किसी के पास बंदूक की गोली मिल जाने पर उसे आतंकवादी होने की आशंका से पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, अब मीडिया का काम यहां से शुरू हो जाता है। आज की मीडिया हाउस इस बात पर 2 घंटे का डिबेट शो करने लगता है और वहीं पर पहला जजमेंट पास कर दिया जाता है कि वो अतंकवादी है या नहीं। राफेल पर नीबू के नाम पर डिबेट तो कभी किसी दूसरी निराकार बातों पर डिबेट। इनके पूर्वाग्रहों से ग्रसित आम जनता अब डिबेट शो ज्ञान और खबरों से अपडेट होने के लिए ना देखकर केवल लुफ्त उठाने और अपना मन ताज़ा करने के लिए देखने लगी है।  


"किसी देश में स्‍वतंत्र, निष्‍पक्ष मीडिया भी उतना ही महत्‍वपूर्ण है जितना कि लोकतंत्र के दूसरे स्‍तंभ।" किसी लोकतंत्र में प्रेस के लिए ‘लोकतंत्र के चौथे स्‍तंभ’ वाली यह परिभाषा  सबसे पहले एडमंड बर्क ने रखी थी। लेकिन आज इस परिभाषा के विपरित ही लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाने वाला मीडिया आज अपनी अलग ही दुनिया में खोया हुआ है। 


जितना राजनीतिज्ञों ने हिन्दू मुस्लिम एकता में प्रहार करने में योगदान नहीं दिया उससे ज्यादा मीडिया ने उनके ज़हरीले भाषणों का ज़बरदस्त प्रचार कर उनका काम आसान बना दिया। भारतवर्ष में केवल कथित हिन्दू मुस्लिम के अलावा भी एक समाज है, पूरा देश है। क्या कहीं भी कुछ घटना नहीं घटती? मगर फिर भी समाज में एक दूसरे के धर्म के आधार पर उसके आंखों में बेबुनियादी बातों का कट्टरता के बड़े चश्मे पहनाने का काम मीडिया कर रही है। 




आप इन्हीं बातों से जान सकते हैं कि मीडिया का स्तर कैसा हो चुका है उदाहरण के लिए - अभी चीनी राष्ट्रपति की मुलाकात प्रधानमंत्री से मामल्लपुरम में हुई, इस एक इवेंट कि तरह दिखाया गया, अच्छा है परन्तु दूसरे दिन जब अखबारों को देखा गया तो कुछ ही अख़बार ऐसे थे जिनमें इनकी मुलाकात का ब्यौरा दिया दिया गया था कि इस मुलाकात में क्या बात हुई और क्या नहीं। मीडिया को केवल कवरेज करने से मतलब होता है, चाहे वो कुछ भी हो लेकिन आज के समय में नैसर्गिक बाते ही आपको देखने के लिए मिलेंगी। कहीं पर लिंचिंग हो रही है कहीं आज के समय भी पीने को पानी नहीं है और ग्लोबल हंगर इंडेक्स में देश का अंक पाकिस्तान से भी नीचे गिर गया है। लेकिन मीडिया को ऐसी बातों से क्या लेना देना जो समाज को जाग्रत करे, सरकार से जन संवाद कराए और आम जन की समस्याएं ऊपर तक उठाए। यहां तक कि यह बात बिल्कुल समझ में नहीं आती कि जब देश भुखमरी से ग्रसित है, लोगों को खाने जो खाना नहीं मिल रहा है तब मीडिया जनता को क्या दिखाने ने व्यस्त है, हम अपने ही देश की व्यथा से अपरिचित हैं। इससे यह साबित हो जाता है कि वह मीडिया जिसे एक समय पर मुहिम या मिशन की भांति देखा और चलाया जाता था वह अब स्वतः ही इस मिशन का भटका हुआ सेवक बन चुका है और नए पत्रकारिता के दौर में मिशन सेवकों कि संख्या विलुप्त होती जा रही है।



यह लेख  अभिषेक तिवारी (वशिष्ठ ) द्वारा लिखा गया है दिल्ली के मीडिया दरबार नामक हिंदी साप्ताहिक पत्रिका में दूसरे टाइटल द्वारा प्रकाशित हो चुका है। इस आर्टिकल के बारे में हमें कमेंट कर बताएं कि कैसा लगा और ऐसे ही आर्टिकल्स पढ़ते रहने के लिए हमें फेसबुकइंस्टाग्राम और ट्विटर पर लिखे और फॉलो करें।

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