केटीएनवी लास वेगास से ली गयी फोटो |
एक समय था जब पत्रकारिता मुहिम हुआ करती थी, उस समय में जब ब्रिटिश शासन ने देश में अपनी पैठ जमाई हुई थी तब लोगों में आज़ादी की भावना और जनसंचार के लिए अखबारों और पत्रिकाओं का प्रकाशन किया जाता था और निष्पक्ष रूप से प्रसारित किया जाता था। किसी तरह से भारत के आज़ाद होने के बाद देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था का शिलान्यास किया गया था, तब लोकतंत्र को मजबूत रूप देने और सुचारू ढंग से बनाए रखने के लिए इसे 4 मजबूत स्तंभों में बनाया गया था, जिसमें पहले स्थान पर न्यायपालिका, दूसरा स्तंभ कार्यपालिका, तीसरा स्तंभ विधायिका और आखिरी साथ ही सबसे आवश्यक स्तंभ मीडिया को रखा गया। इसी चौथे स्तंभ मीडिया का कार्य बाकी के 3 स्तंभों के कार्य पर नजर रखने और लोगों में जनसंचार प्रसारित करने, लोकव्यावस्था का निर्माण करने तथा समाज को को एक सूत्र में पिरोने का था। परन्तु जिस प्रकार से समय के साथ सब कुछ बदलता है वैसे ही इस कथित रूप से प्रगतिशील समाज में मीडिया ने अपना कुछ अलग ही स्वरूप तैयार कर लिया।
देश के आज़ाद होने के बाद बाजारीकरण हुआ फिर उसके बाद बाज़ार से लेकर राजनीति, राजनीति से लेकर सम्पूर्ण लोकतंत्र के लिए समाज की आवाजों को उठाने वाली मीडिया स्वयं ही बाजारीकृत हो गई। हां ये बात सच है कि बाजार बढ़ने से मीडिया को भी अपनी क्षमता बढ़ाने का अवसर मिला है। लेकिन इससे बाज़ार का भी बोझ मीडिया पर पड़ा है, अब मीडिया स्वतंत्र नहीं दिखती है।
कैपिटल एम से ली गयी फोटो |
वहीं दूसरी ओर यदि कोई भी मुद्दा हो गया यदि मान लीजिए उदाहरण के लिए किसी के पास बंदूक की गोली मिल जाने पर उसे आतंकवादी होने की आशंका से पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, अब मीडिया का काम यहां से शुरू हो जाता है। आज की मीडिया हाउस इस बात पर 2 घंटे का डिबेट शो करने लगता है और वहीं पर पहला जजमेंट पास कर दिया जाता है कि वो अतंकवादी है या नहीं। राफेल पर नीबू के नाम पर डिबेट तो कभी किसी दूसरी निराकार बातों पर डिबेट। इनके पूर्वाग्रहों से ग्रसित आम जनता अब डिबेट शो ज्ञान और खबरों से अपडेट होने के लिए ना देखकर केवल लुफ्त उठाने और अपना मन ताज़ा करने के लिए देखने लगी है।
"किसी देश में स्वतंत्र, निष्पक्ष मीडिया भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि लोकतंत्र के दूसरे स्तंभ।" किसी लोकतंत्र में प्रेस के लिए ‘लोकतंत्र के चौथे स्तंभ’ वाली यह परिभाषा सबसे पहले एडमंड बर्क ने रखी थी। लेकिन आज इस परिभाषा के विपरित ही लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाने वाला मीडिया आज अपनी अलग ही दुनिया में खोया हुआ है।
जितना राजनीतिज्ञों ने हिन्दू मुस्लिम एकता में प्रहार करने में योगदान नहीं दिया उससे ज्यादा मीडिया ने उनके ज़हरीले भाषणों का ज़बरदस्त प्रचार कर उनका काम आसान बना दिया। भारतवर्ष में केवल कथित हिन्दू मुस्लिम के अलावा भी एक समाज है, पूरा देश है। क्या कहीं भी कुछ घटना नहीं घटती? मगर फिर भी समाज में एक दूसरे के धर्म के आधार पर उसके आंखों में बेबुनियादी बातों का कट्टरता के बड़े चश्मे पहनाने का काम मीडिया कर रही है।
यह लेख अभिषेक तिवारी (वशिष्ठ ) द्वारा लिखा गया है दिल्ली के मीडिया दरबार नामक हिंदी साप्ताहिक पत्रिका में दूसरे टाइटल द्वारा प्रकाशित हो चुका है। इस आर्टिकल के बारे में हमें कमेंट कर बताएं कि कैसा लगा और ऐसे ही आर्टिकल्स पढ़ते रहने के लिए हमें फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर पर लिखे और फॉलो करें।
0 टिप्पणियाँ