“यदि आप वही करते हैं, जो आप हमेशा से करते आये हैं तो आपको वही मिलेगा, जो हमेशा से मिलता आया है!!” — टोनी रॉबिंस

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आरक्षण सामाजिक समता से ज्यादा वोट पाने का जुगाड़ है।

जनवरी 2019 में केंद्र सरकार ने 124 वां संविधान संशोधन बिल पास करके उन तमाम आरक्षण विरोधी तर्कसंगत आंदोलनों और आवाजों को दबा दिया, जो प्रतिभा को अवसर देने और आरक्षण की समीक्षा करने की बात कर रहे थे। सरकार ने लोकसभा चुनाव से पहले 10% सवर्णों के लिए आरक्षण की घोषणा करके एक बार फिर देश की जनता को मूर्ख बनाने में कामयाबी पा ली थी। क्योंकि इसके लिए जिस सालाना आय 800,000 का हवाला दिया गया था, देश के लगभग 1% लोग ही इससे बाहर रहेंगे। वोट बैंक को साधने की नियत से लिया गया यह फैसला एक बार फिर से देश को बांटने के उद्देश्य से युक्त था। 2019 के अंत में लेकिन पुनः निर्वाचित मोदी सरकार ने एक बार फिर से यह तय कर लिया है कि यह जातिवादी आरक्षण बना रहेगा। जो कि 25 जनवरी 2020 को ख़त्म होने वाला था। आखिर हमारा देश समाजवाद से ऊपर कब उठेगा? और आरक्षण पिछड़ी जातियों का उत्थान करने में कितना सहायक है ? और सहायक है भी तो आज लगभग 5 दशक बीत जाने के बाद भी उनका उत्थान क्यों नहीं हो पाया?


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भारत में लोकतंत्र लिए आरक्षण एक हथियार है (फोटो: myviewsmydristi.com) 


ऐसा नहीं है कि किसी सरकार ने ऐसा पहली बार किया हो इससे पहले की भी केंद्र सरकार और
 राज्य सरकारों ने ऐसा किया है। हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने महाराष्ट्र में अपने वोट बैंक को
साधने के लिए केवल इसलिए मराठों को आरक्षण दे दिया कि उनकी कुल आबादी महाराष्ट्र में
50% के आसपास है जो किसी पार्टी के चुनाव जीतने के व्यवसाय को जारी रख सकता है ।
इससे पहले राजस्थान सरकार ने भी ऐसा ही कुछ ओबीसी वर्ग के वोट बैंक को साधने के लिए
 किया था। इस तरह एक के बाद एक आरक्षण बिल सरकारों द्वारा पारित करने से गुजरात के
पटेलों हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों, राजस्थान के गुर्जरों ,आंध्र प्रदेश में कापू
जाति के लोगों में  अपनी मांग मनवाने और अपने को पिछड़ा घोषित करवाने की आशा जगा दी
है।

इसी के साथ आरक्षण नीति के उद्देश्य, औचित्य और इस को हथियार बनाकर जनता को बांटने
के तरीके को लेकर अब बहस तेज हो रही है , तो साथ ही कई प्रश्न खड़े हो रहे हैं
  • पहला ,तो यह कि आरक्षण के और कितने मॉडल अभी सामने आएँगे?
  •  दूसरा, देश में पिछड़ा बनने की होड़ का अंत कब होगा?
  • तीसरा ,कब तक सामाजिक समता के सपने दिखाकर योग्यता की हत्या की जाएगी?


और सबसे बड़ा सवाल इन राजनीतिक दलों और नेताओं से कि वे वोट बैंक को साधने के लिए
कब तक देश को पीछे धकेलते और बांटते रहेंगे?और क्या अभी तक आरक्षण की सुविधा का लाभ ले रहे लोगों की यह ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि सामाजिक विमर्श में वे यह सवाल लाएं कि आरक्षण के पार योग्यता को तवज्जो देने और सबको समान अवसर उपलब्ध कराने पर बहस हो?

आपको बता दें कि दसवीं तक दलितों का ड्रॉपआउट रेट 80% के आसपास है । हाल ही में किए गए एक सर्वे के अनुसार स्नातक की पढ़ाई के बाद लगभग 17%  छात्र ही रोज़गार के योग्य होते हैं, बाकियों के पास रोज़गार के लिए जरूरी स्किल्स ही नहीं होती। विश्व के टॉप 100 यूनिवर्सिटीज और कॉलेजों में, हमारे देश का एक भी कॉलेज या यूनिवर्सिटी नहीं आती हैं।

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भारत में अब तक आरक्षण कडाता जो कि  अलग अलग है (फोटो साभार : लॉ टाइम्स जर्नल )

 जब तक सरकार शिक्षा संबंधित अधोसंरचना में जरूरी सुधार ना करके सिर्फ वर्ग दलित, सवर्ण
और पिछड़ों में योग्यता या कैपेसिटी लाने का प्रयास नहीं करेगी ,तब तक आरक्षण उस दो धारी तलवार की तरह कार्य करेगा, जो एक तरफ तो समाज को बांटेगा जिससे कभी दंगे भड़केन्गे ,तो कभी देश बंद बुलाया जाएगा। और दूसरी तरफ योग्यता व प्रतिभा का लगातार या तो हनन होगा या तो पलायन होगा।

आज आरक्षण को अवसर की जगह सुविधा का स्वरूप देकर और सभी वर्गों को इसकी मलाई
दिखाकर जो खेल राजनीतिक पार्टियां खेल रही है उससे तो विकास का दूर-दूर तक नाता नहीं
दिखता ।अच्छे स्कूल, कॉलेज ,शिक्षक और उपयुक्त रोजगार ना उपलब्ध करा पाने की गलतियों
को छुपाना और वोट बैंक की राजनीति करके निश्चित वर्ग को लाभ पहुंचाने का प्रयास करने का
खेल साफ-साफ दिखता है।

यदि आरक्षण इतना ही उपयुक्त है तो वे क्या कारण है कि आरक्षण की सुविधा के बाद भी एक
सर्वे के अनुसार 17 गुना ज्यादा समाज में असमानता बढ़ी है। सरकार सामाजिक न्याय का खेल
तो बहुत अच्छे से खेलती है ,लेकिन समाज को जोड़ने,उनमें एकता लाने और हर हाथ रोजगार के लिए उसके पास करने को कुछ नहीं है।


आज आरक्षण देने के नए-नए तरीके खोजे जा रहे हैं ।हर नेता प्रयासरत दिखता है कि कैसे किसी
समुदाय के लिए आरक्षण की बात उठाकर वह सनसनी मचा दे। तथा एक बार फिर से देश को
नए-नए वर्गों जातियों में बांट कर अलग-थलग कर दिया जाए।

आरक्षण कायम रखने व इसे लगातार बढ़ाने का मेन मकसद ये है कि एक जाति  या वर्ग को
दूसरी जाति या वर्ग के खिलाफ रखा जा सकता है और उन्हें जाति, उपजाति आदि में बांट
बांटकर अलग-थलग करके अपना हित साधा जा सकता है।

आपको बता दें कि हमारे देश की सरकारें यह सोचती हैं कि आप आरक्षण का जुमला खेलते रहो
और जनता को आपस में लड़ा और अलग-थलग करके सत्ता का सुख भोगते रहो, और इस तरह
आज देश में कुल आरक्षण 59.5% कर दिया गया और जब भी चुनाव में अपने वोट बैंक को
साधना होता है तो चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार , आरक्षण का खेल खेलना बेहतर
समझती हैं क्योंकि उनका दूर दूर तक ना तो विकास से मतलब है ना ही बेरोज़गारी शिक्षा
व्यापार आदि में वे सुधार चाहती हैं।

इन नेताओं की उपलब्धि केवल इतनी है कि इन्होंने आजादी के 72 सालों में हमें दिया है
भूमाफिया का आतंक, महंगाई ,इंसानियत का सफाया, हनन होती मानवीय अस्मिता, अपराध ,
जमाखोरी आदि आदि। यह समझ से परे है कि बड़े-बड़े वायदे करने वाले इन नेताओ ने राजनीति का अपराधीकरण किया या अपराध का राजनीतिकरण किया।

लोकतंत्र के सबसे दुखद पहलुओं में से एक यह था कि कांग्रेस पार्टी ने स्वतंत्रता के बाद भी 
शासन के ब्रिटिश प्रतिमान को जारी रखा । जिस तरह अंग्रेजों ने प्रभावी ढंग से शासन करने के
लिए मुसलमानों और हिंदुओं व विभिन्न जातियों और संप्रदाय को एक दूसरे के खिलाफ विभाजित किया, भारतीय राजनीति में एकराज वंश के डीएनए में या यूं कहें वही डीएनए आज लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों में दिखता है ।जिनमें उसी औपनिवेशिक सत्ता का डीएनए है जो भारतीयों और भारत देश को उसकी योग्यता व प्रतिभा के अनुसार आगे नहीं बढ़ने देना चाहते हैं, बार-बार यह प्रयास करते हैं कि देश को और लोगों को छोटे-छोटे समूह में बांट दिया जाए।

आरक्षण देते समय यह कहा गया था कि इसका प्रयोग जाति व्यवस्था को तोड़ने के लिए किया जा रहा है ,लेकिन आज तो सिर्फ यही दिखता है कि इसका प्रयोग वोट बैंक को और लोगों को बांटने के लिए हो रहा है ,और परिणाम यह रहा कि जाति व्यवस्था टूटने की जगह और मजबूत हुई है जाति ,धर्म के चश्मे को सरकार एक ओर उतारना नहीं चाहती है तो साथ ही वही चश्मा वो जन-जन को पहनाना चाहती है। या यूं कहें कि जाति धर्म का पट्टा लोगों की आंखों पर बांध देना चाहती है। जिससे लोगों को आरक्षण के परे विकास, समाज, रोजगार और स्वास्थ्य संबंधित आदि मुद्दे न दिखें।


जहां अब देश में अगले 15 - 20 वर्षों तक हर महीने लगभग 1000000 युवा रोज़गार के क्षेत्र
में प्रवेश कर रहे हैं तो क्या उन्हें रोज़गार और रोज़गार के लिए आवश्यक अधोसंरचना उपलब्ध
कराने की बजाय बार-बार आरक्षण के मुद्दे पर ही चुनाव लड़ना और वोट माँगना उपयुक्त होगा?

चलिए एक नजर आरक्षण के इतिहास पर डालते हैं-

आरक्षण की सुविधा हंटर आयोग से शुरू हुई, ज्योतिबा राव फुले ने सरकारी नौकरियों में अंग्रेजोंसे आरक्षण की मांग की ,इसके बाद अंग्रेजों ने देश को बांटने के लिए व समाज के सभी वर्गों के बीच फूट डालने के लिए 1908 से आरक्षण की शुरुआत की। 1909 के अधिनियम में भी इसका प्रावधान किया और 1919 के प्रसिद्ध मर्केंट्यू चेम्सफोर्ड सुधार में भी इसका उपयोग समाज को बांटने में हुआ।

अंग्रेजों का यह षड्यंत्र कामयाब रहा 1935 आते-आते भीमराव अंबेडकर दलितों और पिछड़ों
के लिए अलग धर्म की बात करने लगे तब गांधी और अंबेडकर के बीच पूना समझौता 1935 में
हुआ और इस तरह आरक्षण रूपी बैसाखी पर भारत की प्रतिभा को टिका दिया गया ।आजादी
के बाद नवगठित सरकार व अंबेडकर ने इसे 10 वर्षों के लिए देश में लागू करने का प्रावधान
किया था, ताकि दबे कुचले लोग अवसर का लाभ उठाकर समाज की मुख्यधारा में शामिल हो
जाएं । लेकिन अब आने वाली सरकारें आरक्षण को मुख्य मुद्दा बनाकर शिक्षा ,रोजगार ,स्वास्थ्य
जैसे मूलभूत मुद्दों से जनता का ध्यान हटाने में कामयाब रहीं।

ये राजनीतिक पार्टियां यह प्रयास करती दिखती हैं कि मुख्य मुद्दों से भटका कर और माफिया व
गुंडों की सहायता लेकर जनता में आतंक डर पैदा करके उन्हें बांट दिया जाए।


चाहे 1951 का मूंदड़ा स्कैंडल हो,जिसमें कांग्रेस ने घोटालों की शुरुआत की, नागरवाला स्कैंडल
1971 जो इंदिरा जी के समय हुआ। 1973 का मारुति घोटाला, बोफोर्स में कमीशन खाने का
कलंक। 2011 नेशनल हेराल्ड केस ।2013 का अगस्ता हेलीकॉप्टर घोटाला। इन सब से भटकाने
के लिए कांग्रेस और अन्य पार्टियों ने जनता को समय-समय पर बांटते रहने का प्रयास किया और हर बार आरक्षण का मुद्दा उछाल कर लोगों को आपस में लड़ा दिया। जिससे लोग उनके
कारनामों पर ध्यान ना दें।

अब जब भी आरक्षण के खिलाफ आवाज उठती है तो यह राजनीतिक पार्टियाँ संविधान का
हवाला देकर आरक्षण के पक्ष में तथ्य उजागर करती हैं ।वह कहती हैं कि हमारा संविधान
आरक्षण की पैरवी करता है। लेकिन वह इसे कैसे भूल जाती हैं उन्होंने समय-समय पर उसी
संविधान की धज्जियां उड़ाई हैं।

मसलन 1975 का वह भी दौर आया जब इंदिरा गांधी सरकार ने रातों-रात लोगों के नैतिक
अधिकार छीन लिए ,अखबारों पर प्रतिबंध लगा दिया गया ,अखबार के छाप घर से बिजली काट दी गई ,जिससे लोगों तक खबर ही न पहुंच सके और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचनाओं से बचने के लिए इस पार्टी ने रातों-रात लंदन टाइम्स, डेली टेलीग्राफ और वाशिंगटन पोस्ट के ब्यूरो चीफ को देश से निकाल दिया।जबरन लाखों लोगों की नसबंदी की गई ,इस नसबंदी के चक्कर में हजारों लोगों की मृत्यु हो गई। इंदिरा जी ने खुद  बोला था कि आपातकाल जैसे हथियार के जरिए जनता के दिल में दहशत पैदा करना जरूरी था। अब यह समझ से परे है कि लोकतंत्र की दुहाई देने वाले यह नेता क्या इसी तरह देश को आतंकित करते रहेंगे और डराते धमकाते रहेंगे?

इस तरह 1979 में मंडल आयोग की सिफारिश पर समाज में ओबीसी नामक नया वर्ग लाया गया और समता के नाम पर आरक्षण रुपी छुरा एक बार फिर से योग्यता की पीठ पर घोंपकर,समाज को और छोटे -छोटे वर्गों में बांट दिया गया।


शाहबानो केस से यह साफ हो गया था कि यह राजनीतिक पार्टियां समानता या समाज सुधार की जगह केवल चुनाव जीतने का व्यवसाय करती हैं। आपको बता दें कि बूथ कैपचरिंगके पहले उदाहरण 1957 के चुनाव में किया गया, जिसमें किराए की गुंडे मतदाताओं को मारते -पीटते और उनकी ओर से मतदान करते। तथाकथित राजनेता चुनाव जीतने के बाद  उन गुंडों को उस अभियोजन से बचाते दिखे। तब ऐसे में इन नेताओं और पार्टियों से यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि यह समाज को जोड़ने और विकास के लिए कार्य करेंगे। जबकि इनका मुख्य एजेंडा केवल चुनाव जीतना ही है। 1952 में चुनाव लड़ने वाली पार्टियों की संख्या 55 थी जो आज बढ़कर 500 के पार हो गई है तब इन पार्टियों ने ज्यादा से ज्यादा जोर धन अपनी जेबों में भरने पर ध्यान लगाया ।

और ऐसे में उन्होंने चुनाव जीतने के लिए गुंडा और बाहुबलियों का साथ देना शुरू किया और
प्रयास किया कि ज्यादातर ऐसे ही लोग राजनीति में आए ।उन्होंने ऐसा इसलिए किया कि वह
आसानी से अफसरों, पुलिसवालों को खरीद व डरा धमका सके ।साथ ही जनता से अपने पक्ष में
वोट डलवा कर जनता को बांटने -काटने  का काम  जारी रख सकें।

वास्तव में देखा जाए तो आरक्षण सांप्रदायिक समाज बनाने का आधार है । एक विद्यार्थी किसी एक सीट या विशेष कॉलेज में एडमिशन पाने के लिए बहुत प्रयास करता है लेकिन उसे उस कॉलेज के गेट से इसलिए लौटा दिया जाता है या वह विशेष सीट इसलिए नहीं दी जाती कि वह किसी विशेष धर्म या जाति से नहीं आता, जिसे हमारा बुद्धिजीवी वर्ग आरक्षण  मानता है।

एक तरफ आप संविधान में ही कहते हो कि शिक्षा पाना हर बच्चे का अधिकार है । लेकिन यह समझ से परे है कि उसे फिर कॉलेज, यूनिवर्सिटी या अन्य संस्थानों के गेट से क्यों लौटा दिया जाता है ? यह केवल दोगलापन है।.... दशकों से आरक्षण की चारपाई पर लेटे  लोग यह समझना ही नहीं चाहते कि आरक्षण से देश जुड़ता नहीं बल्कि बंटता चला जाता है और साथ ही मेहनत ना चाहने वाले आरक्षित वर्ग के कुछ लोग हमेशा वह आधार तलाशते हैं कि बिना कुछ किए उन्हें सब मिल जाए।

शायद उसी का परिणाम होता है कि आईआईटी जैसे एग्जाम जिसमें एक लड़का 98 मार्क्स
लाकर फांसी लगा लेता है क्योंकि वह क्वालीफाइंग नंबर से एक या दो मार्क्स पीछे रह जाता है ।

वही एक ऐसी भी सुविधा है कि एक लड़का 35 मार्क्स लाने के बाद भी योग्य घोषित कर दिया
जाता है,यह कब तक और क्यों?

आज जब भारत तरक्की की राह पर आगे बढ़ रहा है तो एक ऐसा माहौल तैयार करने का प्रयास
क्यों किया जा रहा है कि समाज वर्गों में बंटता चला जाए। यदि आजादी के 7 दशकों बाद भी
मुख्य मुद्दों व क्वालिटी युक्त शिक्षा ,स्वास्थ्य, रोजगार की जगह जातिगत आरक्षण आदि पर बात
हो रही है और हम उस पर राजनीति व वोट कर रहे हैं तो लानत है, हम पर। और सबसे ज्यादा
बहस इस बात पर होनी चाहिए कि  स्वतंत्रता के 71 सालों बाद भी आरक्षण देने के बावजूद
ज्यादातर लोग समाज की मुख्यधारा में शामिल क्यों नहीं हुए ?जिससे आज भी आरक्षण का खेल खेला जा रहा है।

शायद 21वीं सदी में भारत इकलौता ऐसा देश है जहां आरक्षण की चारपाई है, वही जहां अन्य
देश समान अवसर व प्रतिभा को तवज्जो देते हैं ,वहीं भारत धर्म ,जाति ,अल्पसंख्यक के भरोसे
देश को विश्व शक्ति बनाने की चाहत रखता है।

इतिहास में तो बहुत कुछ हुआ है इसका रोना लेकर अगर हम आज भी रोते हैं, तो देश कैसे
आगे बढ़ेगा ? लेकिन कुछ ऐसे लोग हैं जिनको यह पता है कि यदि आरक्षण की मलाई दिखाकर,
देश में बार-बार आग नहीं लगाएंगे तो जाति के नाम पर चलने वाली इनकी राजनीति का धंधा बंद हो जाएगा। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश की योग्यता और प्रतिभा खत्म हो जाए या भले ही देश का नाश या सत्यानाश हो जाए ।उनके अपने बच्चे विदेशों की बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में पढ़ते हैं लेकिन देश के योग्य युवाओं को यह आगे नहीं आने देना चाहते, जिससे इनके भविष्य की पीढ़ियां सुरक्षित रूप से अपना धंधा चलाती रहें।


आपको बता दें तमिलनाडु, महाराष्ट्र, तेलंगाना, हरियाणा सबसे ज्यादा 60% से ऊपर आरक्षण
देने वाले राज्य हैं। जबकि झारखंड ,कर्नाटक जैसे और भी राज्य हैं जिन्होंने 50% या उससे
ज्यादा का आरक्षण दिया हुआ है । जब भी समाज में किसी अनुचित विषय के विरुद्ध आवाज
उठती है तो तथाकथित बुद्धिजीवी कहे जाने वाला वर्ग संविधान का हवाला देकर एक निश्चित
विचारधारा या राजनीतिक पक्ष को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से उसे सही ठहरा देता है।
संविधान का हवाला देने वाले यह लोग सामाजिक बंटवारे और जातिवाद का विरोध करते हैं।
लेकिन एससी /एसटी/ओबीसी /अल्पसंख्यक आदि की दुहाई देकर समाज को नए सिरे से बांटने
का कार्य करते हैं। जब वे एक बार देश को आरक्षण रूपी तलवार से तोड़ने में कामयाब रहे तो
बार-बार वे यही प्रयास करते हैं कि कैसे आरक्षण का खेल खेल,कर समाज को छोटे और फिर
और छोटे-छोटे गुटों, टुकड़ों में बांटकर अपने वोट बैंक को साधते रहे तथा एक जाति को दूसरे
जाति के खिलाफ भड़का कर उन्हें एहसास दिलाएं की दूसरी जाति उनके विरुद्ध है और हमेशा
उनके साथ अन्याय करती है।

 शायद इसी का परिणाम है कि देश कभी एक नहीं हो पाता और लगातार टुकड़ों में बटता चला
जाता है। शायद देश को अभी कई पाकिस्तान बनते देखना  रह गया है। बस करना इतना है कि
किसी तरह आरक्षण के मुद्दे को उछालो और अपने वोट बैंक को अपने पक्ष में लाओ। इसके लिए
उन्होंने बांटो और राज करो की नीति अपनाई जिसे grievance पॉलिटिक्स कहते हैं।

अपने वोट बैंक को साधने के लिए ये लोकतंत्र के नाम पर वही खेल ,खेल रहे हैं जो कभी अंग्रेजों
ने भारत में खेला था अर्थात बांटने व राज करने का खेल।

आज भी धनगर,गोर,बंजारा आदि जातियां अपने हक की लड़ाई लड़ रही है तो इनके साथ ही
करोड़ों-करोड़ ऐसे लोग हैं जिनके पास न तो तन ढकने के लिए कपड़ा है और ना ही एक समय
अच्छे से करने के लिए भोजन है। आज भी करोड़ों लोग स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी सुविधा से वंचित
हैं सामान्य सी बीमारी से उनकी मौत हो जाती है ।लेकिन सत्ता का धंधा करने वाले नेताओं के
पास इसके लिए करने को कुछ नहीं है।।


है तो केवल आरक्षण के नाम पर देश को बांटने का काम ।






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