“यदि आप वही करते हैं, जो आप हमेशा से करते आये हैं तो आपको वही मिलेगा, जो हमेशा से मिलता आया है!!” — टोनी रॉबिंस

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3 दिसंबर में हुई भोपाल में हजारों मौतों के बाद भी आज भोपाल उसी डर के साये में हैं

 भोपाल को यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता, भीमबैठका गुफा, ताज-उल-मस्ज़िद और मध्यप्रदेश की राजधानी होने के कारण जाना जाता है, लेकिन भोपाल को एक भयावहता के दौर से गुजरने वाले शहर के नाम से भी जाना जाता है। वही शहर जहाँ विश्व का सबसे खतरनाक हादसा हुआ था।  वो हादसा जो कि महज एक हादसा बिलकुल नहीं था। 1984 का 2-3 दिसम्बर, उस वक़्त को गुज़रे 34 साल बीत चुके हैं लेकिन वहां के लोगों में आज भी वो भयानक रात किसी के मन से नहीं निकल पाई है। आज भी वो दिन भोपाल के उस इलाके के लोगों के दिल को पसीज देता है,जिस इलाके में यह घटना घटी थी। कुहासे से भरी रात में जब हज़ारों लोग छटपटाने लगे थे ,अँधेरे में एक दुसरे से टकराते हुए दिशा का भी कोई अंदाजा नहीं था। उनके पैरों से लाशें और कराहते पीड़ित टकरा रहे थे, लेकिन उन्हें सिर्फ भागना था क्योंकि उनके पास कोई दूसरा सहारा नहीं था।  मौत से बचने के लिए अफरा तफरी मची हुई थी। कोई खून की उल्टियां कर रहा था तो कोई आँखों में हो रही जलन को कम करने के लिए रगड़ रहा था तो कहीं कोई अपने गले को दबा रहा था जिससे वो भयानक मौत उनके हलक को जाम न कर सके और जो बेचारे उस बस्ती में सो रहे थे वो फिर कभी नहीं उठ सके।  2 और 3 दिसंबर 1984 की रात भोपाल में यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से लीक हुई मिथाइल आइसोसाइनाइट गैस ने ऐसा खौफनाक मंजर पैदा किया था।


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भोपाल गैस कांड में  मौतों की तस्वीर (फोटो-ग्राउंडरीपोर्ट डॉट इन )

3 दिसंबर को हुई इस घटना ने हज़ारों जानें तो लीं ही थी, साथ ही आने वाली पीढ़ियों पर भी अपना कुप्रभाव छोड़ गयीं। जयप्रकाश नगर में आज भी जापान के हिरोशिमा और नागासाकी की तरह ही लोग कुछ न कुछ शारीरिक विभिन्नता के साथ ही पैदा होते हैं। ये गैस हवा से भारी थी और शहर के करीब 40 किमी इलाके में फैली थी।कड़ाके की ठंड रात में हुए इस हादसे में तकरीब 8000 लोगों की जान दो सप्ताह के भीतर हो गई थी। वहीं 8000 से ज्यादा लोग इसके दुष्प्रभाव की वजह से बीमार होकर दम तोड़ चुके हैं। मरने वालों के अनुमान पर अलग-अलग एजेंसियों की राय भी अलग-अलग है। पहले अधिकारिक तौर पर मरने वालों  की संख्या 2,259 बताई गई थी। मध्य प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने 3,787 लोगों के मरने की पुष्टि की थी। वहीं कुछ रिपोर्ट का दावा है कि 8000 से ज्यादा लोगों की मौत तो दो सप्ताह के अंदर ही हो गई थी और लगभग अन्य 8000 लोग गैस रिसाव से फैली बीमारियों के कारण मारे गये थे। इसके प्रभावितों की संख्या लाखों में होने का अनुमान है।नतीजे में 56 वार्डों में से 36 वार्डों में इसका गम्भीर असर हुआ, कई सालों में 20,000 से ज्यादा लोग तिल-तिलकर मारे गए और लगभग 5.5 लाख लोगों पर अलग-अलग तरह का प्रभाव पड़ा। उस समय भोपाल की आबादी लगभग 9 लाख थी। हादसे के साढ़े 3 दशक बीत जाने के बाद भी आज तक न तो किसी सरकार ने इसके निवारण के लिए कोई कदम उठाया और न ही इसके नतीजों और प्रभावों का आकलन करने की कोशिश की है।


घटना कैसे घटी ?



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यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री जो आज भी अपनी जगह पर स्थित है और बंद पड़ी है (फोटो:आईनेक्सट लाइव)




दो दिसंबर 1984 की रात  मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड इण्डिया लिमिटेड की कीटनाशक कारखाने के टैंक से रिसी 40 टन मिथाइल आइसोसायनाइट (एम.आई.सी.) गैस (जो एक गम्भीर रूप से घातक जहरीली गैस है) के कारण यह भयावह हादसा हुआ था। यहां नाइट शिफ्ट में काम करने आए करीब आधा दर्जन कर्मचारी भूमिगत टैंक के पास पाइपलाइन की सफाई शुरू करने जा रहे थे। उसी वक्त टैंक का तापमान अचानक 200 डिग्री पहुंच गया, जबकि इस टैंक का तापमान चार से पांच डिग्री के बीच रहना चाहिए था। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि टैंक को सुरक्षित रखने के लिए प्रयोग किया जाने वाला फ्रीजर प्लांट बिजली का बिल बचाने के लिए बंद कर दिया गया था। तापमान बढ़ने पर टैंक में बनने वाली जहरीली गैस उससे जुड़ी पाइप लाइन में पहुंचने लगी। पाइप लाइन का वॉल्व सही से बंद नहीं था, लिहाजा उससे जहरीली गैस का रिसाव शुरू हो गया। वहां मौजूद कर्मचारियों ने वॉल्व बंद करने का प्रयास किया, लेकिन तभी खतरे का सायरन बज गया। कर्मचारियों को कारखाने में जहरीली गैस का पता था, लिहाजा सायरन बजने पर उन्होंने वहां से सुरक्षित बाहर निकलना ही बेहतर समझा। आसपास की बस्तियों में रहने वाले लोगों को घुटन, आंखों में जलनी, उल्टी, पेट फूलने जैसी समस्या होने लगी। पुलिस जब तक सतर्क होती, आसपास के इलाके और कारखाने में भगदड़ मच चुकी थी। इसके बावजूद कारखाने के संचालक ने किसी तरह के गैस रिसाव से इंकार कर दिया। इसके थोड़ी देर बाद ही अस्पताल में मरीजों की भीड़ उमड़ पड़ी। सुबह पुलिस ने लाउडस्पीकर से लोगों को चेतावनी देनी शुरू की, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।  हादसे के बाद जांच एजेंसियों को पता चला कि कारखाने से संबंधित सभी सुरक्षा मैन्युअल अंग्रेजी में थे। इसके विपरीत कारखाने के ज्यादातर कर्मचारियों को अंग्रेजी का कोई ज्ञान नहीं था। संभवतः उन्हें आपात स्थिति से निपटने के लिए जरूरी प्रशिक्षण भी नहीं दिया गया था। जानकारों के अनुसार अगर लोग मुंह पर गीला कपड़ा डाल लेते तो भी जहरीली गैस का असर काफी कम होता, लेकिन किसी को इसकी जानकारी ही नहीं थी। इस वजह से हादसा इतना बड़ा हो गया। इधर जहरीली गैस की भनक लगते ही मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजधानी भोपाल से भाग गए। लोग मर रहे थे और अर्जुन सिंह भोपाल से दूर अपने निजी फार्म हाउस कैरवा डैम में खुद को भाग्यशाली मान रहे थे। भगोड़ों में भोपाल के ज्यादार सीनियर डॉक्टर भी थे। जान बचाने के लिए वे भी शहर से दूर चले गए। अस्पतालों की सारी जिम्मेदारी जूनियर डॉक्टरों पर थी। उन्हें ऐसी स्थिति से निपटने का बहुत कम अनुभव था। त्राहिमाम की रात के बाद जब अगली सुबह हुई तो शहर के दक्षिणपूर्वी हिस्से में शवों का अंबार लग चुका था। चंद घंटों के भीतर 2000 से ज्यादा लोग मारे जा चुके थे।  हजारों बुरी तरह बीमार थे।  भोर होते होते जूनियर डॉक्टर आंखों में आई ड्रॉप्स डालने में व्यस्त थे। पीड़ित खुद खांसते और हांफते दूसरों के लिए ऑक्सीजन के सिलेंडर कंधे पर ढो रहे थे।  

आज के हालत क्या हैं ?

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 भोपाल अब देश का दूसरा सबसे स्वच्छ शहर बन चुका है, यानी कि ओडीएफ शहर बन चुका है लेकिन कैसे ? यह सोचने वाली बात है। (फोटो - जागरणजोश )


उस भयावह रात  को बीते दशकों तो बीत गए लेकिन दिक्कत यह है कि आज तक राज्य सरकार और केंद्र सरकार अपना दायित्व निभाने में असमर्थ दिखती है। आज भी यहां जहरीली गैसों का खतरा बरकरार है। उस त्रासदी का 346 टन जहरीला कचरा निस्तारण अब भी एक चुनौती बना हुआ है।ये कचरा आज भी हादसे की वजह बने यूनियन कार्बाइड कारखाने में कवर्ड शेड में मौजूद है। इसके खतरे को देखते हुए यहां पर आम लोगों का प्रवेश अब भी वर्जित है। स्थानीय लोगों का मानना है कि इस कचरे और 34 साल पहले हुए हादसे में कारखाने से निकली जहरीली गैसों का असर आज भी यहां के लोगों को झेलना पड़ रहा है। दरअसल भारत के पास इस जहरीले कचरे के निस्तारण की तकनीक और विशेषज्ञ आज भी मौजूद नहीं हैं। अभी भी भूजल प्रदूषण क्षेत्रों में है और राज्य सरकार और नगर निगम भोपाल इसमें उचित वैज्ञानिक निगरानी नहीं कर रहे हैं। दूसरी ओर दूषित पानी के कारण बीमार हो रहे प्रभावितों को मुफ्त चिकित्सा सुविधा तक नहीं मिल पा रही है। अनुमानित 11000 मीट्रिक टन दूषित जमीन या मिट्टी को ठीक करना ही सबसे कठिन कार्य है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर 13-18 अगस्त 2015 तक पीथमपुर में 'रामके' कंपनी के इंसीनरेटर में यहां का लगभग 10 टन जहरीला कचरा जलाया गया था। ट्रीटमेंट स्टोरेज डिस्पोजल फेसीलिटीज (टीएसडीएफ) संयंत्र से इसके निष्पादन में पर्यावरण पर कितना असर पड़ा, इसकी रिपोर्ट केंद्रीय वन-पर्यावरण मंत्रालय को चली गई है। हालांकि इसका असर क्या हुआ, ये अब भी पहेली बना हुआ है। साथ ही ये सवाल अब भी बरकरार है कि इस जहरीले कचरे का निस्तारण कब तक होगा।

गैस प्रभावितों की स्वास्थ्य जरूरतों के प्रति राज्य और केन्द्र सरकार की लापरवाही पहले की तरह ही चिन्ताजनक बनी हुई है। स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर कई इमारतें और लगभग 1000 बिस्तरों वाले अस्पताल तो खोल दिये गए हैं, परन्तु जाँच, निदान, शोध और जानकारी जैसे मामलों में स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत खराब है।

भोपाल के गैस पीड़ितों की स्वास्थ्य स्थिति की निगरानी में आईसीएमआर (Indian Council of Medical Research) और म.प्र. सरकार की हद दर्जे की उदासीनता चौंका देने वाली बनी हुई है। चौंतीस साल बाद भी गैस से सम्बनधित शिकायतों के इलाज का कोई निश्चित तरीका नहीं खोजा गया है। महज लक्षण-आधारित इलाज, निगरानी और जानकारी की कमी के कारण जरूरत से ज्यादा दवाएँ दिये जाने और गलत या नकली दवाओं के कारण प्रभावितों में किडनी-फेल होने की घटनाएँ बहुत बढ़ गई हैं।

इलाज के लिये आने वाले अधिकतर गैस प्रभावितों को अस्थायी क्षति के दर्जे में रखा जाता है ताकि उन्हें स्थायी क्षति के लिये मुआवजा न देना पड़े। शर्मनाक है कि हादसे के साढ़े तीन दशक बाद भी पीड़ितों के सही मेडिकल रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं हैं।

आईसीएमआर के मुताबिक वर्ष 2000 में बनने के बाद से बीएमएचआरसी (भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर) में लगभग एक लाख 70 हजार गैस पीड़ित नियमित इलाज करवा रहे हैं। एक चौंकाने वाली और शर्मनाक घटना सामने आई कि 2004 से 2008 के बीच बीएमएचआरसी में गैस पीड़ितों पर बिना जानकारी के दवाओं के परीक्षण किये गए। 

और साथ ही ओडीएफ शहर कहलाने वाला शहर भोपाल आज भी उसी जहर के साथ जी रहा है। क्यों अभी तक किसी भी पार्टी और किसी राजनेता का उस पर ध्यान नहीं गया या ध्यान नहीं देने का में ही नहीं बनाया? क्या केवल शौंच मुक्त शहर ही स्वच्छ हो सकता है? क्या पर्यावरण में जहर घोलने वाले तत्व पर्यावरण को और उससे मानवों को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं? आखिर आज तक इस बात पर कभी किसी वैज्ञानिक सलाह को क्यों नहीं अपनाया गया? 


(यह लेख पहले ही मीडिया दरबार दिल्ली के एक साप्ताहिक अख़बार पर दूसरे टाइटल के साथ प्रकाशित किया जा चुका है।) हमें फेसबुक पेज पर लाइक करें और ट्विटर पर भी फॉलो करें। अपनी राय रखने के लिए कृपया कॉमेंट बॉक्स पर लिखें।  

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